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Desh bhakti kavita ye | कोई पुछे मेरे बारे मे तो ....


 जब कोई पुछे मेरी बारे मे तो मेरी पहचान लिख देना

उठाना मेरा खंजर और छाती पर हिन्दुस्तान लिख देना

कोई पुछे पागल था वो कौन भगत सिंह राणा प्रताप और क्रान्तिकारीयो का चेला और इंकलाब का गुलाम लिख देना

और बचा हो जिस्म मे मेरे लहु तो निकालना उसे और फेकना जमीं पे और माँ तुझे सलाम लिख देना

~Shifuji jaihind

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कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूँही कोई बेवफा नही होता!  यू तो गुफ्तगू उनसे रोज होती है, मुददत्तों सामना नही होता!!  जी बहुत चाहता है सच बोले, क्या कर हौसला नही होता!!  रात का इंतजार कौन करे? आज कल दिन में क्या नही होता ~ बशीर बद्र  आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा  बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं तुम ने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा यारों की मोहब्बत का यक़ीं कर लिया मैं ने फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा ख़त ऐसा लिखा है कि नगीने से जड़े हैं वो हाथ कि जिस ने कोई ज़ेवर नहीं देखा पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा ~बशीर बद्र

Baith jata hu mitti pe akshar... बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर । sad hindi poetry

  बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा, चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना। ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्योंकि एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले। एक घड़ी ख़रीदकर हाथ में क्या बाँध ली, वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे। सोचा था घर बना कर बैठूँगा सुकून से पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला। सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब, बचपन वाला ‘इतवार’ अब नहीं आता। शौक तो माँ-बाप के पैसों से पूरे होते हैं, अपने पैसों से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं। जीवन की भाग-दौड़ में; क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ? हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है। एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम, और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है। कितने दूर निकल गए रिश्तों को निभाते निभाते खुद को खो दिया हमने अपनों को पाते पाते। ~अज्ञात

अटल जी कि प्रसिद्ध कविता ।एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, Atal ji poem on pakistan

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